दिवाली की रौनक जहाँ बाजारों में धूम मचा रही है, वहीं देहरादून की कुम्हार मंडी में मिट्टी के कारीगरों के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हैं।

दिवाली की रौनक जहाँ बाजारों में धूम मचा रही है, वहीं देहरादून की कुम्हार मंडी में मिट्टी के कारीगरों के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हैं। पुश्तों से दीयों और मिट्टी के बर्तनों को आकार देने वाले इन हाथों के सामने अब अपनी कला को जीवित रखने का संकट खड़ा हो गया है। दिवाली के अवसर पर लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों, डिजाइनर दीयों और अन्य सजावटी सामानों की मांग चरम पर है, लेकिन कारीगरों का कहना है कि वे इस मांग को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इसका मुख्य कारण मिट्टी की भारी किल्लत और आसमान छूती कीमतें हैं। जो मिट्टी की ट्रॉली पहले 4000 रुपये में मिलती थी, अब उसकी कीमत 14000 रुपये तक पहुँच गई है। कारीगरों के अनुसार, अनियंत्रित शहरीकरण से चिकनी मिट्टी का मिलना लगभग दूभर हो गया है, जिससे उनका मुनाफा खत्म हो रहा है। इस कमी को पूरा करने के लिए, उन्हें कोलकाता जैसे शहरों से महंगी मूर्तियां और डिजाइनर दीये मंगवाने पड़ रहे हैं, जिससे उनकी लागत और बढ़ जाती है।

पीढ़ियों से इस काम में लगे कुम्हारों का दर्द है कि अगर सरकार ने जल्द ही मिट्टी की उचित व्यवस्था नहीं की, तो उनका यह पुश्तैनी काम बंद होने की कगार पर पहुँच जाएगा। उनका कहना है कि वे केवल एक त्योहार के लिए सामान नहीं बनाते, बल्कि अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रखते हैं। कारीगरों ने सरकार से गुहार लगाई है कि उन्हें मिट्टी खनन के लिए विशेष लाइसेंस दिए जाएं या मिट्टी की आपूर्ति के लिए कोई ठोस नीति बनाई जाए, ताकि उनकी कला का दीया दिवाली के अँधेरे में गुम न हो जाए।

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