एक जैसा भूगोल, मौसम, जरूरतें, समस्याएं और समाधान होने के बावजूद आज उत्तराखंड और हिमाचल के हालातों में भारी अंतर साफ नजर आता है।

काश! उत्तराखंड के पास भी कोई परमार हो !
उत्तराखंड राज्य आंदोलन से लेकर राज्य बनने के ढाई दशक बाद तक गाहे-बगाहे उत्तराखंड में किसी परमार के आने की बात कही जाती रही है। डॉक्टर यशवंत सिंह परमार को यहां के नीति नियंता भाषणों में अपना आदर्श भी बताते हैं। हर बात पर हिमाचल का उदाहरण भी देते हैं, लेकिन डॉक्टर परमार बनना तो दूर, वे उनके आदर्शों और दृष्टि को समझ पाने तक में असमर्थ हैं। परमार ने स्थापित किया कि अगर इच्छा शक्ति हो तो बर्तन मांजने की जगह सेब उगाये जा सकते हैं। वहीं उत्तराखंड में नेताओं ने सेब के सरकारी बगीचे खुर्द-बुर्द किए और उनकी जगह शराब, खनन की दुकानें उगा दीं। जिस राज्य में हिमाचल की तर्ज पर फल और सब्जियों की जबर्दस्त पैदावार और व्यापार हो सकता था, वहां नीति नियंताओं ने ट्रांसफर, पोस्टिंग जैसे ‘उद्योगों’ को अपना टॉप और सीक्रेट एजेंडा बनाया हुआ है।
बागवानी के विकास के लिए जैसी परिस्थितियां परिस्थिति चाहिये, उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में वैसी परिस्थितियां है, लेकिन उसके बावजूद वहां संपन्नता नहीं बल्कि लाचारी और निराशा पसरी दिखती है।
एक जैसा भूगोल, मौसम, जरूरतें, समस्याएं और समाधान होने के बावजूद आज उत्तराखंड और हिमाचल के हालातों में भारी अंतर साफ नजर आता है। इसलिए उत्तराखंड में डॉक्टर परमार जैसे विजनरी नेतृत्व की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
पूरे वीडियो का लिंक कमेंट बॉक्स में है। प्रदीप शत्ती जी के फेसबुक पोस्ट पर