नंगे पैरों से धरती को महसूस करते ये हाथ, अनगिनत कहानियाँ बुनते हैं —

#पहाड़ों_की_रसोई: एक जीवित संस्कृति
सूरज की सुनहरी किरणें जब हिमालय की चोटियों को चूमती हैं, तब इन पहाड़ों की धरती पर जीवन का एक नया गीत गूंजता है। इसी गीत का एक टुकड़ा है यह दृश्य — जहाँ मिट्टी से उठती लकड़ी की सोंधी खुशबू, उबलते बड़े-बड़े बर्तनों की गर्म भाप के संग हवा में घुलती है।
नंगे पैरों से धरती को महसूस करते ये हाथ, अनगिनत कहानियाँ बुनते हैं — सेवा की, प्रेम की, और अपनेपन की। महिलाएं अपने सिर पर पारंपरिक गमछे बाँधे, समय की गति को साधती हुई, चूल्हे के धुएँ के बीच मुस्कुराती हैं। उनकी आँखों में एक शांत संतोष है — दूसरों के लिए कुछ कर पाने का, समाज का हिस्सा होने का।
दूर, कतार में बैठे लोग — धैर्य से प्रतीक्षा करते हुए — इस संस्कृति के सबसे सरल लेकिन सबसे गहरे मूल्यों को जी रहे हैं: साझा करना, सम्मान देना, और प्रकृति के साथ एकरूप होना।
पेड़ों की सरसराहट, दूर की पहाड़ियों की नीली छाया, और मिट्टी की गंध — सब मिलकर एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहाँ जीवन अब भी प्रकृति के संगीत पर थिरकता है।
यह केवल एक भंडारा नहीं, यह आत्मा का भोज है।
यह उत्तराखंड के पहाड़ों की मूक मगर गूंजती पुकार है —
“आओ, एक-दूसरे के साथ जियो, प्रकृति के संग बहो, और जीवन को उसकी सच्ची सरलता में अपनाओ।”
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